हर दिन एक जैसा नहीं होता
किसी-किसी दिन हम चीज़ों को ज़्यादा महसूस करते हैं। सुने हुए गानों का मतलब उस दिन ज़्यादा गहरा लगने लगता है। खत्म हुई चीज़ें ज़्यादा दुख देती हैं। छोटी-छोटी बातें, जो बाकी दिनों में नज़रअंदाज़ कर देते हैं, उस दिन दिल को चुभ जाती हैं। पुराने ज़ख्म पर कोई ज़रा सा हाथ भी लगा दे, तो चीखने का मन करता है। ऐसे दिनों में मन भारी-भारी सा लगता है। बिस्तर पर लेटकर बस पंखे को घूरने का मन करता है, जैसे वो कुछ कह देगा। परफेक्ट से परफेक्ट चीजें भी उस दिन खोखली सी लगती हैं। दिल चाहता है कि खुलकर रो लें, सारा दर्द निकाल दें। लेकिन कमबख्त ज़िम्मेदारियाँ रोने तक का समय नहीं देतीं। जल्दी-जल्दी सब काम निपटाते हैं, यह सोचकर कि शाम को चैन से बैठकर रो लेंगे, इस दिन को जी भरकर कोसेंगे। मगर ये क्या, दिन तो खत्म हो गया। फिर अगला दिन आता है और वह दिन अपने साथ पिछले दिन की मायूसी नहीं लाता क्योंकि हर दिन एक जैसा नहीं होता।