बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हम सबको एक दोस्त की जरुरत होती है जो हमारे हर हार जीत में साथ चल सके. जिन्दगी की राह में हमें हर पड़ाव पर कई दोस्त मिलते हैं. वैसे दोस्ती करना बहुत आसान होता है लेकिन उसे निभाना उतना ही मुश्किल.
-Shivam
मुझे पहले केवल एक ही रिश्ता ऐसा समझ आता था जो हम बचपन में विरासत में प्राप्त नहीं करते बल्कि जो हम ख़ुद बनाते है क्यूँकी हम अपने रिश्तेदार नहीं चुन सकते लेकिन अपने दोस्त चुनने का हक़ मिलता है और शायद यहाँ तो हमारी खुद की इच्छा के अनुसार हम काम कर सकते है, लेकिन अब बढ़ते नैतिक मूल्यों ने दोस्ती के मापदंड ही बदल दिए है....
मेरी माने तो राम-सुग्रीव की दोस्ती को भी सच्ची मित्रता नही कह सकते क्यूँकी वहां भी एक समझौता हुआ था की राम, बाली को मारकर हराएंगे और सिंघासन मिलने पर ही सुग्रीव् माता सीता को ढूंढने में मदद करेंगे...अगर ये मित्रता है तो समझौते की जरुरत क्या थी और यह समझौता था तो दोस्ती कहाँ थी...?
सच्ची दोस्ती तो कृष्णा-सुदामा के बीच थी, जिसमे लेन-दें और समझौते के भाव से कहीं ज्यादा पवित्र और उजली मित्रता का भाव था..अपनी जीवनसंघनि के बार-बार कहने पर भी सुदामाँ चाहकर भी कृष्ण के द्वार न जा पाते थे की कृष्णा इसे अन्यथा न लें..सुदामा को अपने परिवार की भूख और गरीबी मंजूर थी, लेकिन अपने दोस्त की मदद लेना मंजूर नहीं था..शायद मित्रता का बुलावा था की संकोच करते हुए भी सुदामा द्वारिकाधीश श्री कृष्णा के द्वार पर जा पहुंचे और कृष्ण ने भी अभावों से ग्रस्त मित्र का न केवल सम्मान किया बल्कि उसके द्वारा लाएं कच्चे चावल को प्रेमपूर्वक ग्रहण कर यह साबित कर दिया की मित्रता से बड़ा कोई प्रेम नहीं और इसके लिए तो स्वयं भगवान भी भूखे हैं....
इसीलिए अगर दोस्ती हो तो ऐसी करो जिसमें दोस्त का स्वाभिमान, दुःख, तकलीफें आपकी हो जाएँ; और हाँ सबसे ज़रूरी ये कि दोस्त का साथ देना अच्छा है लेकिन गलत रास्ते पर चलने से रोकना भी दोस्त का ही फ़र्ज़ है; अगर आप अपने आपको दोस्त कहते हैं तो उसके मायने भी समझना होंगे. :)
ज़मीन, ना सितारे, ना चाँद, ना रात चाहिए,
दिल में मेरे, बसने वाला किसी दोस्त का प्यार चाहिए,
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