किस्से कहूँ
कुछ पल हैं जो मुस्कुराहट मांगते हैं,
कुछ लम्हें जो बस संग चलना चाहते हैं।
ज़िंदगी यूँ तो रोज़ कुछ न कुछ कहती है,
पर हर बात को सब समझ नहीं पाते हैं।
चाय की चुस्की में बीते दिन याद आते हैं,
ट्रैफिक में फँसे ख्वाब भी मुस्कराते हैं।
कुछ अपने हैं जो दूर सही,
पर दिल में अब भी पास से लगते हैं।
कभी मोबाइल स्क्रीन से बातें कर लीं,
कभी खिड़की से आती हवा से दिल हल्का कर लिया।
हर चीज़ में एक साथी तलाशा,
हर बात में थोड़ा सुकून पा लिया।
मन तो करता है लिख दूँ सब कुछ कहीं,
या कह दूँ किसी को यूँ ही चलते-चलते।
फिर रुकता हूँ, सोचता हूँ —
सोचता हूँ कुछ किस्से कहूँ,
फिर सोचता हूँ किस से कहूँ।

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