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कैसा लगा मेरा दोस्त बनकर?

 जब पहली बार मिले थे, तब क्या सोचा था मन में? "यार बनेगा?" या "परेशान करेगा हर क्षण में?" जब मेरी फ़ालतू बातें सुनी, तब हँसी आई थी या तरस आया था? सच-सच बता, दिल से सुना था या दिमाग चकराया था? मैंने जो राज़ बताए थे, क्या तूने संभाल के रखे? या अगले दिन तेरे मज़ाक का हिस्सा बनके बिखर गए सब पत्ते? जब लड़ाई हुई थी हममें, क्या सच में तू रूठा था? या बस "ego" के नाम पर थोड़ी सी दूरी का बहाना था? कभी तुझसे बिना बात घंटों बकबक की, क्या दिल से सुनी थी या कानों में रूई ठूसी थी? जब तू उदास था और मैंने जोक मारा था, तब चिढ़ गया था या अंदर ही अंदर थोड़ा मुस्काया था? तेरे हर "कहाँ है बे?" के जवाब में "यहीं हूँ रे!" कहा, क्या तूने भी कभी वैसे ही इंतज़ार किया, जैसे मैंने किया? अब जब ये पूछ रहा हूँ — कैसा लगा मेरा दोस्त बनकर? क्या बोझ सा लगा मैं कभी? या थोड़ी राहत, थोड़ा सा घर जैसा महसूस हुआ कभी? तो बता ना यार, कैसा लगा मेरा दोस्त बनकर? कभी सिरदर्द लगा, कभी दिल का चैन? या फिर बस एक 'थोड़ा पागल लेकिन अपना' इंसान? - तू बता, तुझ पे छोड़ दिया सारा हिसा...

मन उलझा हो... तो मैं रेलवे स्टेशन चला जाता हूँ

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कभी-कभी ज़िंदगी ऐसे मोड़ पर ले आती है जहाँ मन भारी हो जाता है। बहुत कुछ कहना होता है, पर कोई सुनने वाला नहीं होता। ऐसे वक़्त में मैं चुपचाप अपना बैग उठाता हूँ और चला जाता हूँ वहाँ... जहाँ मुझे कोई सवाल नहीं करता, कोई जवाब नहीं चाहिए – मैं रेलवे स्टेशन चला जाता हूँ। हां, वही रेलवे स्टेशन। जहाँ दिन-रात ट्रेनें आती-जाती हैं। लोग मिलते हैं, बिछड़ते हैं। भीड़ होती है, पर फिर भी एक अजीब सी तन्हाई भी। मेरे लिए यह जगह किसी मंदिर से कम नहीं। वहाँ बैठकर मैं अपने सबसे सच्चे विचारों से मिलता हूँ। मुझे वहाँ की आवाज़ें सुकून देती हैं – ट्रेन की सीटी, पटरियों की कंपन, प्लेटफॉर्म पर चाय वाले की पुकार। ये सब मिलकर ऐसा लगता है जैसे कोई पुराना दोस्त दिलासा दे रहा हो – “सब ठीक हो जाएगा।” मैं अक्सर एक कोने में बैठकर लोगों को देखता हूँ। किसी के चेहरे पर विदाई का दुख होता है, किसी की आँखों में मिलने की खुशी। और फिर मैं सोचता हूँ – हम सब अपने-अपने सफ़र में हैं, कुछ भी स्थायी नहीं है। रेलवे स्टेशन पर मुझे एहसास होता है कि जीवन भी एक यात्रा है। ट्रेन की तरह, कभी तेज़, कभी धीमी। कुछ स्टेशन पर हमें रुकना होता है,...

किस्से कहूँ

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कुछ पल हैं जो मुस्कुराहट मांगते हैं, कुछ लम्हें जो बस संग चलना चाहते हैं। ज़िंदगी यूँ तो रोज़ कुछ न कुछ कहती है, पर हर बात को सब समझ नहीं पाते हैं। चाय की चुस्की में बीते दिन याद आते हैं, ट्रैफिक में फँसे ख्वाब भी मुस्कराते हैं। कुछ अपने हैं जो दूर सही, पर दिल में अब भी पास से लगते हैं। कभी मोबाइल स्क्रीन से बातें कर लीं, कभी खिड़की से आती हवा से दिल हल्का कर लिया। हर चीज़ में एक साथी तलाशा, हर बात में थोड़ा सुकून पा लिया। मन तो करता है लिख दूँ सब कुछ कहीं, या कह दूँ किसी को यूँ ही चलते-चलते। फिर रुकता हूँ, सोचता हूँ — सोचता हूँ कुछ किस्से कहूँ, फिर सोचता हूँ किस से कहूँ।

घिबली ट्रेंड और सॉफ्ट लॉन्चिंग: प्यार का नया सिनेमाई अंदाज़

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अब सोशल मीडिया पर घिबली सौंदर्य केवल सुंदर नज़ारों और सुकून भरे माहौल तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक नए रोमांस ट्रेंड का हिस्सा बन चुका है— सॉफ्ट लॉन्चिंग । पहले लोग अपने जीवनसाथी का सिर्फ़ हाथ, परछाईं या कोई छोटी सी झलक साझा करते थे, लेकिन अब इस ट्रेंड को एक नया रूप मिल गया है—सपनों जैसे घिबली शैली के दृश्यों के साथ अपनी प्रेम कहानी का ट्रेलर बनाने का! एक धुंधली अनौपचारिक तस्वीर, पीछे हाउल्स मूविंग कैसल का संगीत, और कैप्शन में कोई शायरी—"कहीं न कहीं एक दुनिया है जहाँ हम दोनों साथ हैं..." मतलब, औपचारिक रूप से घोषणा भी नहीं करनी और संकेत भी छोड़ना! एक ओर दुनिया चिंताओं में उलझी हुई है, और यहाँ लोग अपनी प्रेम कहानी को किसी जादुई जंगल में बुन रहे हैं। हक़ीक़त में शायद किसी चाट वाले भैया के ठेले पर पानीपुरी खा रहे हों, लेकिन तस्वीरों में ऐसा लगेगा जैसे किसी घिबली फ़िल्म का चरम दृश्य चल रहा हो! इस ट्रेंड की सबसे मज़ेदार बात यह है कि यह केवल एक सौंदर्यपूर्ण शैली नहीं, बल्कि नए ज़माने का रोमांस भी है। लोग अपनी ज़िंदगी को ड्रीमी, फ़िल्मी टच देना चाहते हैं, जहाँ हर पल किसी घिबली दृश...

हर दिन एक जैसा नहीं होता

किसी-किसी दिन हम चीज़ों को ज़्यादा महसूस करते हैं। सुने हुए गानों का मतलब उस दिन ज़्यादा गहरा लगने लगता है। खत्म हुई चीज़ें ज़्यादा दुख देती हैं। छोटी-छोटी बातें, जो बाकी दिनों में नज़रअंदाज़ कर देते हैं, उस दिन दिल को चुभ जाती हैं। पुराने ज़ख्म पर कोई ज़रा सा हाथ भी लगा दे, तो चीखने का मन करता है। ऐसे दिनों में मन भारी-भारी सा लगता है। बिस्तर पर लेटकर बस पंखे को घूरने का मन करता है, जैसे वो कुछ कह देगा। परफेक्ट से परफेक्ट चीजें भी उस दिन खोखली सी लगती हैं। दिल चाहता है कि खुलकर रो लें, सारा दर्द निकाल दें। लेकिन कमबख्त ज़िम्मेदारियाँ रोने तक का समय नहीं देतीं। जल्दी-जल्दी सब काम निपटाते हैं, यह सोचकर कि शाम को चैन से बैठकर रो लेंगे, इस दिन को जी भरकर कोसेंगे। मगर ये क्या, दिन तो खत्म हो गया। फिर अगला दिन आता है और वह दिन अपने साथ पिछले दिन की मायूसी नहीं लाता क्योंकि हर दिन एक जैसा नहीं होता।

भीड़ और लोगों के अप्रूवल्स इतने भी मायने नहीं रखते जितना हम मान बैठते हैं.

भीड़ और लोगों के अप्रूवल्स इतने भी मायने नहीं रखते जितना हम मान बैठते हैं. लोगों से उम्मीद रखना और इंतज़ार करने के मामलों में मैं एकदम ज़ीरो हूँ, और इसीलिए लोग जैसे दिखते हैं वैसे होते नहीं है तो मैं शांति से बिना बताए कनेक्शन कट कर लेता हूँ और अपनी धुन में लाइफ एन्जॉय करता हूँ. उनसे जवाब की अपेक्षा रखना, माफ़ी की चाहत या मन में टीस रखकर अपनी एनर्जी को खत्म करना मेरा तरीका नहीं है. मैं सारी दुनिया को एथिक्स नहीं सिखा सकता, लेकिन मैं खुद की मानसिक शांति ज़रूर बना कर रख सकता हूँ. और वैसे भी भीड़ चाहिए किसको? इतने से जीवन में थोड़े से लोग चाहिए बस जिनसे मन मिलना चाहिए और थोड़ा सा सुकून, बस इत्तु सा चाहिए!

समझ और परख

कल इंस्टाग्राम पर पढ़ा था, ज़िन्दगी में जब तक जिंदा हैं परेशानियां रहेंगी, बस शक्ल और उसके मायने बदल जाएंगे। मैं इस बात से सहमत भी हूँ, पर इन परेशानियों को समझ लेने या स्वीकार लेने की हिम्मत भी होनी चाहिए। हम किसी के चले जाने से इसलिए घबरा जाते हैं क्योंकि इसके बाद कि तैयारी हमने कहीं सीखी ही नहीं। हमें बस इतना पता है कि साथ रहने के लिए हम क्या क्या कर सकते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही है, मेरे पास समय का बस एक पक्ष ही है, जिसमे मुझे लगता है मैं सब ठीक कर लूंगा, पर इससे कम ही रहा। मैं कई बार अपने फैसलों पर गौर करता हूँ तो तब सही लग रहे सारे पॉसिबल फैक्ट्स अब बेकार लगते हैं। मेरा मन अजीब सा हो गया है। मुझे मालूम है कि मेरा मन शांत नहीं है लेकिन वो एक टक किसी चीज़ को देखकर सम्भल रहा है, किसी निश्चित दूरी को अंत तक समझ कर समय काट रहा है, सोच रहा है