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कैसा लगा मेरा दोस्त बनकर?

 जब पहली बार मिले थे, तब क्या सोचा था मन में? "यार बनेगा?" या "परेशान करेगा हर क्षण में?" जब मेरी फ़ालतू बातें सुनी, तब हँसी आई थी या तरस आया था? सच-सच बता, दिल से सुना था या दिमाग चकराया था? मैंने जो राज़ बताए थे, क्या तूने संभाल के रखे? या अगले दिन तेरे मज़ाक का हिस्सा बनके बिखर गए सब पत्ते? जब लड़ाई हुई थी हममें, क्या सच में तू रूठा था? या बस "ego" के नाम पर थोड़ी सी दूरी का बहाना था? कभी तुझसे बिना बात घंटों बकबक की, क्या दिल से सुनी थी या कानों में रूई ठूसी थी? जब तू उदास था और मैंने जोक मारा था, तब चिढ़ गया था या अंदर ही अंदर थोड़ा मुस्काया था? तेरे हर "कहाँ है बे?" के जवाब में "यहीं हूँ रे!" कहा, क्या तूने भी कभी वैसे ही इंतज़ार किया, जैसे मैंने किया? अब जब ये पूछ रहा हूँ — कैसा लगा मेरा दोस्त बनकर? क्या बोझ सा लगा मैं कभी? या थोड़ी राहत, थोड़ा सा घर जैसा महसूस हुआ कभी? तो बता ना यार, कैसा लगा मेरा दोस्त बनकर? कभी सिरदर्द लगा, कभी दिल का चैन? या फिर बस एक 'थोड़ा पागल लेकिन अपना' इंसान? - तू बता, तुझ पे छोड़ दिया सारा हिसा...

मन उलझा हो... तो मैं रेलवे स्टेशन चला जाता हूँ

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कभी-कभी ज़िंदगी ऐसे मोड़ पर ले आती है जहाँ मन भारी हो जाता है। बहुत कुछ कहना होता है, पर कोई सुनने वाला नहीं होता। ऐसे वक़्त में मैं चुपचाप अपना बैग उठाता हूँ और चला जाता हूँ वहाँ... जहाँ मुझे कोई सवाल नहीं करता, कोई जवाब नहीं चाहिए – मैं रेलवे स्टेशन चला जाता हूँ। हां, वही रेलवे स्टेशन। जहाँ दिन-रात ट्रेनें आती-जाती हैं। लोग मिलते हैं, बिछड़ते हैं। भीड़ होती है, पर फिर भी एक अजीब सी तन्हाई भी। मेरे लिए यह जगह किसी मंदिर से कम नहीं। वहाँ बैठकर मैं अपने सबसे सच्चे विचारों से मिलता हूँ। मुझे वहाँ की आवाज़ें सुकून देती हैं – ट्रेन की सीटी, पटरियों की कंपन, प्लेटफॉर्म पर चाय वाले की पुकार। ये सब मिलकर ऐसा लगता है जैसे कोई पुराना दोस्त दिलासा दे रहा हो – “सब ठीक हो जाएगा।” मैं अक्सर एक कोने में बैठकर लोगों को देखता हूँ। किसी के चेहरे पर विदाई का दुख होता है, किसी की आँखों में मिलने की खुशी। और फिर मैं सोचता हूँ – हम सब अपने-अपने सफ़र में हैं, कुछ भी स्थायी नहीं है। रेलवे स्टेशन पर मुझे एहसास होता है कि जीवन भी एक यात्रा है। ट्रेन की तरह, कभी तेज़, कभी धीमी। कुछ स्टेशन पर हमें रुकना होता है,...

किस्से कहूँ

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कुछ पल हैं जो मुस्कुराहट मांगते हैं, कुछ लम्हें जो बस संग चलना चाहते हैं। ज़िंदगी यूँ तो रोज़ कुछ न कुछ कहती है, पर हर बात को सब समझ नहीं पाते हैं। चाय की चुस्की में बीते दिन याद आते हैं, ट्रैफिक में फँसे ख्वाब भी मुस्कराते हैं। कुछ अपने हैं जो दूर सही, पर दिल में अब भी पास से लगते हैं। कभी मोबाइल स्क्रीन से बातें कर लीं, कभी खिड़की से आती हवा से दिल हल्का कर लिया। हर चीज़ में एक साथी तलाशा, हर बात में थोड़ा सुकून पा लिया। मन तो करता है लिख दूँ सब कुछ कहीं, या कह दूँ किसी को यूँ ही चलते-चलते। फिर रुकता हूँ, सोचता हूँ — सोचता हूँ कुछ किस्से कहूँ, फिर सोचता हूँ किस से कहूँ।

घिबली ट्रेंड और सॉफ्ट लॉन्चिंग: प्यार का नया सिनेमाई अंदाज़

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अब सोशल मीडिया पर घिबली सौंदर्य केवल सुंदर नज़ारों और सुकून भरे माहौल तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक नए रोमांस ट्रेंड का हिस्सा बन चुका है— सॉफ्ट लॉन्चिंग । पहले लोग अपने जीवनसाथी का सिर्फ़ हाथ, परछाईं या कोई छोटी सी झलक साझा करते थे, लेकिन अब इस ट्रेंड को एक नया रूप मिल गया है—सपनों जैसे घिबली शैली के दृश्यों के साथ अपनी प्रेम कहानी का ट्रेलर बनाने का! एक धुंधली अनौपचारिक तस्वीर, पीछे हाउल्स मूविंग कैसल का संगीत, और कैप्शन में कोई शायरी—"कहीं न कहीं एक दुनिया है जहाँ हम दोनों साथ हैं..." मतलब, औपचारिक रूप से घोषणा भी नहीं करनी और संकेत भी छोड़ना! एक ओर दुनिया चिंताओं में उलझी हुई है, और यहाँ लोग अपनी प्रेम कहानी को किसी जादुई जंगल में बुन रहे हैं। हक़ीक़त में शायद किसी चाट वाले भैया के ठेले पर पानीपुरी खा रहे हों, लेकिन तस्वीरों में ऐसा लगेगा जैसे किसी घिबली फ़िल्म का चरम दृश्य चल रहा हो! इस ट्रेंड की सबसे मज़ेदार बात यह है कि यह केवल एक सौंदर्यपूर्ण शैली नहीं, बल्कि नए ज़माने का रोमांस भी है। लोग अपनी ज़िंदगी को ड्रीमी, फ़िल्मी टच देना चाहते हैं, जहाँ हर पल किसी घिबली दृश...

हर दिन एक जैसा नहीं होता

किसी-किसी दिन हम चीज़ों को ज़्यादा महसूस करते हैं। सुने हुए गानों का मतलब उस दिन ज़्यादा गहरा लगने लगता है। खत्म हुई चीज़ें ज़्यादा दुख देती हैं। छोटी-छोटी बातें, जो बाकी दिनों में नज़रअंदाज़ कर देते हैं, उस दिन दिल को चुभ जाती हैं। पुराने ज़ख्म पर कोई ज़रा सा हाथ भी लगा दे, तो चीखने का मन करता है। ऐसे दिनों में मन भारी-भारी सा लगता है। बिस्तर पर लेटकर बस पंखे को घूरने का मन करता है, जैसे वो कुछ कह देगा। परफेक्ट से परफेक्ट चीजें भी उस दिन खोखली सी लगती हैं। दिल चाहता है कि खुलकर रो लें, सारा दर्द निकाल दें। लेकिन कमबख्त ज़िम्मेदारियाँ रोने तक का समय नहीं देतीं। जल्दी-जल्दी सब काम निपटाते हैं, यह सोचकर कि शाम को चैन से बैठकर रो लेंगे, इस दिन को जी भरकर कोसेंगे। मगर ये क्या, दिन तो खत्म हो गया। फिर अगला दिन आता है और वह दिन अपने साथ पिछले दिन की मायूसी नहीं लाता क्योंकि हर दिन एक जैसा नहीं होता।

भीड़ और लोगों के अप्रूवल्स इतने भी मायने नहीं रखते जितना हम मान बैठते हैं.

भीड़ और लोगों के अप्रूवल्स इतने भी मायने नहीं रखते जितना हम मान बैठते हैं. लोगों से उम्मीद रखना और इंतज़ार करने के मामलों में मैं एकदम ज़ीरो हूँ, और इसीलिए लोग जैसे दिखते हैं वैसे होते नहीं है तो मैं शांति से बिना बताए कनेक्शन कट कर लेता हूँ और अपनी धुन में लाइफ एन्जॉय करता हूँ. उनसे जवाब की अपेक्षा रखना, माफ़ी की चाहत या मन में टीस रखकर अपनी एनर्जी को खत्म करना मेरा तरीका नहीं है. मैं सारी दुनिया को एथिक्स नहीं सिखा सकता, लेकिन मैं खुद की मानसिक शांति ज़रूर बना कर रख सकता हूँ. और वैसे भी भीड़ चाहिए किसको? इतने से जीवन में थोड़े से लोग चाहिए बस जिनसे मन मिलना चाहिए और थोड़ा सा सुकून, बस इत्तु सा चाहिए!

समझ और परख

कल इंस्टाग्राम पर पढ़ा था, ज़िन्दगी में जब तक जिंदा हैं परेशानियां रहेंगी, बस शक्ल और उसके मायने बदल जाएंगे। मैं इस बात से सहमत भी हूँ, पर इन परेशानियों को समझ लेने या स्वीकार लेने की हिम्मत भी होनी चाहिए। हम किसी के चले जाने से इसलिए घबरा जाते हैं क्योंकि इसके बाद कि तैयारी हमने कहीं सीखी ही नहीं। हमें बस इतना पता है कि साथ रहने के लिए हम क्या क्या कर सकते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही है, मेरे पास समय का बस एक पक्ष ही है, जिसमे मुझे लगता है मैं सब ठीक कर लूंगा, पर इससे कम ही रहा। मैं कई बार अपने फैसलों पर गौर करता हूँ तो तब सही लग रहे सारे पॉसिबल फैक्ट्स अब बेकार लगते हैं। मेरा मन अजीब सा हो गया है। मुझे मालूम है कि मेरा मन शांत नहीं है लेकिन वो एक टक किसी चीज़ को देखकर सम्भल रहा है, किसी निश्चित दूरी को अंत तक समझ कर समय काट रहा है, सोच रहा है

आज मैं अपने बारे में बताता हूँ

कितने लोग कहते होंगे ना कि मैं सब समझता हूँ, कितने लोग कहते होंगे ना कि सब जानता हूँ मैं, कितने लोग कहते होंगे ना कि मैं सब जैसा नहीं हूँ, आज मैं तुम्हें अपने बारे में बताता हूँ मैं सब कुछ नहीं समझता हाँ, पर समझने का प्रयास करता हूँ कि वो सब समझ सकूँ जो समझने जैसा है।। मैं सब कुछ नहीं जानता मैं नहीं जानता किसी को रोकना मैं नहीं जानता रूठे हुए को मनाना मैं नहीं जानता मन के भाव व्यक्त करना मैं नहीं जानता दुःखी को उसके दुःखों से निकलना।। मैं सब जैसा ही हूँ मैं रोज़ गलतियाँ करता हूँ और करता हूँ उन्हें ना दोहराने का भरसक प्रयास क्योंकि ये ही सिखाती हैं कि फिर से क्या नहीं करना है तो कैसे प्रयास करना छोड़ दूँ मैं...!!

रात

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रात के 2 बजने को हैं और मैं सोने की बजाय छत पर मुंडेर पर पैर लटका कर बैठा हूँ। रेलवे स्टेशन भी घर के काफ़ी पास में है तो ट्रैन की आवाज़ें आ रही हैं। कहीं दूर किसी गली में कुत्ते के भौकने की आवाज़ आ रही हैं। शायद पास में ही किसी के यहां अखण्ड रामायण पाठ हो रहा है मगर इन सबसे अलग और सुकून देने वाली ठंडी और शांत हवा भी चल रही है जो शरीर को उसके ठंडे होने का एहसास करा रही है, और मैं भी महसूस कर रहा हूँ। मेरे चारों तरफ बस हल्की सी रोशनी है मैं अक्सर आधी रात को अपनी छत पर आकर बैठ जाता हूँ और खाली मन के साथ बैठा रहता हूँ। ना कुछ सोचता हूँ ऐसा जो मुझे परेशान करे बस ठंडी हवा को अपने अंदर निकलता रहता हूँ और ऐसा करने से कुछ टाइम के लिए ही सही पर हाँ इससे मुझे सुकून मिलता है। चलिए अब में छत से नीचे जा रहा हूँ। नींद तो अभी आएगी नहीं पर फ़िर भी सोने का प्रयास करूँगा और आखिर में सो जाऊंगा। © - शिवम

बहुत मन है छोटा हो जाऊँ

माँ के आंचल में छुप जाऊँ, कोई न ले गोदी तो मचल जाऊँ, गली में आये कुल्फ़ी वाला, कुल्फ़ी लेने को उसे रुकने को कह आऊँ, माँ का दूध पीऊं और माँ की गोद में ही सो जाऊँ, बहुत मन है छोटा हो जाऊँ ।। माँ नहाने को बुलाये और मैं पूरे घर में दौड़ लगाऊँ, नींद से जगने पर माँ को न  पाकर खूब ज़ोर से रोऊँ, न मिलने पर मनपसंद चीज़ ज़मीन पर लोटक-पीटा खाऊँ, बहुत मन है छोटा हो जाऊँ।। पापा के साथ दुकान पर ये चाहिए हाथ रखकर बताऊँ, सीटी वाली चप्पल पहन खूब इठलाऊँ, महमान आने पर घर में छुप जाऊँ, बहुत मन है छोटा हो जाऊँ।।                ©-शिvam

श्रीकृष्ण तो श्रीकृष्ण हैं

श्रीकृष्ण तो श्रीकृष्ण हैं  श्रीकृष्ण नटखट है, श्रीकृष्ण चोर भी हैं, श्रीकृष्ण प्रेम हैं, श्रीकृष्ण मित्र हैं, श्रीकृष्ण सारथी है तो, श्रीकृष्ण भाई भी हैं, श्रीकृष्ण गुरु है, कृष्णा तारक है, कृष्णा राधा के हैं सश्रीकृष्ण मीरा के भी हैं श्रीकृष्ण आपके भी हैं श्रीकृष्ण मेरे भी हैं श्रीकृष्ण हम सबके हैं कृष्ण तो कृष्ण है -Shivam

बेरोजगार हूँ साहब

सवाल ये हैं कि- ये सादा हुलिया खाली जेब बढ़ी हुई दाढ़ी उदास चेहरा माथे पर सिकन आंखों में आश जेहन में बहुत से सवाल लिए क्यों घूमते हो? जवाब- बेरोजगार हूँ साहब यही सब कमाया है -शिvam☺️ ©Shivam

लिखना सुकून देता है मुझे

कभी कभी सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति भी कितना नकरात्मक हो जाता है ये आज मैंने महसूस किया! जब  आपको समझने वाला हो ही न और ना ही समझाने वाला लेकिन ऐसे समय पर किसी ऐसे ही  व्यक्ति की जरूरत होती है जो आपको आपको समझाये और आपके बिना कुछ बोले आपके मन की पीड़ा को भी समझ सके पर जब आप ऐसी पीड़ा में होते हो तो कोई नहीं होता क्यूँकी उसका होना और उस वक़्त उस जगह होना मायने रखता है क्यूँकी आप चाहते हो लिपटकर रोना और  बस रोना बिना कुछ बोले बस रोना! काश मेरे पास ऐसा व्यक्ति हर समय और हर उस जगह मौजूद रहें जहाँ मुझे उसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता हो, मुझे उसे कुछ कहने की जरूरत न पड़े वह वो सब समझे जो मैं कहना तो चाहता हूँ  पर कह नहीं पाता हूँ क्यूँकी मुझे कहना नहीं आता और जब मैं कह नही पाता या कोई  नहीं होता उस वक़्त मैं मेरा पसंदीदा काम करता हूँ! मैं उस वक़्त लिखता हूँ वो सब जो मैं किसी से कह नहीं पता या कहना नहीं चाहता! रोने और बहुत सारा दुःख मनाने के बाद मैं फिर से पहले की तरह हो जाता हूँ जैसे कुछ हुआ ही नहीं है इस उम्मीद से की जैसे फिल्मों में अंत में सब ठीक हो जाता है  वास्तविक...

पागल😊

“कितनी देर हो गई तुम्हे यहाँ?” उसने आते ही पूछा. मैंने उसे आगे चलने का इशारा कते हुए कहा “पता नहीं मैं तो ध्यान में मगन था”. क्या? उसने मुड़ कर पूछा तो उसे देख कर मुझे ‘खुबसूरत’ शब्द याद आया और अभी यहीं खड़े होकर उसे कह देने का मन किया की किसी ऐसे ही पल के मैंने लिखा था ‘देखूं तुम्हे और देखता रहूँ/छू लूँ तुम्हे और महकता रहूँ’. पर सब कुछ कह कहाँ पता हूँ मैं. मैं चलते हुए उसके साथ हुआ और कहाँ “इंतजार करना ध्यान करने जैसा ही है इसमें भी आपको आसपास का कुछ नहीं दिखता, बस किसी एक बिंदु पर आंखे टिक जाती है और दिमाग में बस एक बात होती है कि अभी वो दिख जायेगा. मैं तो कहता हूँ की जो ध्यान नहीं लगा पाते उन्हें इंतजार करना चाहिए.” “पागल” उसने कहा और हम जाने कहाँ की तरफ चल पड़े. थोड़ी दूर चलने पर जूस वाला दिखा और उसने उसे पीने के लिए कहा, हम जूस के आने का इंतजार करने लगे. वक्त बहुत ढीठ है, हमेशा उसका उल्टा ही करता है जो इससे कहा गया हो. जब मैं ‘ध्यान’ में था तो ये सो गया था, आलस के मारे इत्ता धीरे हुआ था कि मुझे लग रहा था की कहीं मर तो नही गया. और अभी जब वो पास में बैठी है तो जैसे इसके पीछे कुत्ते पड़ ग...

कमबख्त भावनाएं

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  सिर्फ सुना है कि ये जो कमबख्त भावनाएं होती हैं न , जरा से में आहत हो जाती हैं। उधर किसी ने कुछ ऊंचा , नीचा किया नहीं कि इधर हो गई भावनाएं आहत। ऐसा भी नहीं है कि एक बार आहत हो गईं , तो फिर साल-छह महीने की छुट्टी। इधर आहत होकर निपटे नहीं कि उधर फिर भावनाएं तैयार हैं आहत होने के लिए। कितनी बेशर्म हैं भावनाएं , जो इतनी - इतनी बार आहत होने के बाद भी हत नहीं होतीं।     हमें पता ही नहीं चलता और हमारी भावनाएं आहत हो जाती हैं। क्या पता , हम सोते ही रह गए हों और उधर भावनाएं लहूलुहान हो गईं। सच कहें , तो मुझे कभी लगा ही नहीं कि मेरी भावना आहत भी हुई है। भला हो उन लोगों का , जो समय-समय पर बताते रहते हैं कि लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं। कई बार कोशिश की। हफ्ते भर बाद किसी ने बताया कि भावनाएं आहत हो गई हैं। कोई साफ संकेत तो हमें नहीं मिल रहे , मगर कहा है , तो जरूर हो गई होगी। लोग भला झूठ क्यों बोलेंगे ? भावनाओं को समझना हर एक के बस की बात नहीं है। कम से कम मेरे जैसे आम आदमी के लिए तो बिल्कुल नहीं।       किसी ने एक बार पूछ लिया था कि भावना कभी आहत हुई या नहीं , तो ...

#प्रोपोज़_डे

बात बस इतनी सी है कि जो मन में है वो कह देना ज़रूरी है...कितनी ही उम्र हम गुज़ार देते हैं कई बातें मन में रखकर जीते हुए, जो कभी कहते नहीं.. जो नापसंद हैं उन्हें भी नहीं कहते, और जो पसंद हैं उन्हें भी नहीं कहते; जबकि ज़रूरी है कि कह दिया जाए वो सब जो आप कहना चाहते हैं..हर डर से आगे बढ़कर, हर संकोच से जूझकर वो बोलना अहम है जो ज़रूरी है. और खासकर तब जब कोई अच्छा लगे, कोई भा जाए जी को, या कोई दिल में घर कर ले. हमेशा कह देना चाहिए, और बता देना चाहिए मन की बात, क्यूँकि कहने से ही सामने वाले को पता लगेगा कि दिल में क्या है आपके. बस इतना भर कर लें कि कह देने की आदत बना लेंगे तो कितने ही काश ज़िन्दगी में कम हो जाएंगे... बस इतनी भर हिम्मत जुटा ली तो बहुत से बोझ उतर जाएंगे जो दिल पर हैं..क्या पता कुछ अच्छा ही हो जाए. हम मन नहीं पढ़ सकते, कहना, बताना, और जताना ज़रूरी है इसीलिए हर बात को, प्यार को.❤️

सवाल

तुम्हें पता है मैं तुम्हे याद करता हूँ ये बताना पड़ेगा क्या? मैं अभी भी मोहब्बत करता हूँ ये जताना पड़ेगा क्या? बात करने का मन करता है उसके लिए मुझे कॉल या मैसेज करना पड़ेगा क्या? तुम भूली तो नही होगी मुझे ये मुझे पता करना पड़ेगा क्या? वैसे तुम्हें पता है एक उम्र के बाद रिश्ते इज़हार के मोहताज़ नहीं रहते हैं पूछने बताने की ज़रूरत है क्या? फ़िर भी एक सवाल कभी मैसेज करूँ तो, जवाब दोगी क्या? ✍️शिvam😀

#कमबख्त_ख़्याल

क्या होगा? कब होगा? कैसे होगा? इस कशमश में रात गुज़र रही है... हर ख़्वाब... बिखर रहा हैं बस निराशा ही गले लग रही है.. अब तो खुद को, मैं निकम्मा लगता हूँ शायद पर हूँ नहीं, ये में जानता हूँ... कब मेहनत रंग लाएगी, कब किस्मत पलटेगी बस इन्हीं सवालों में... ये बची हुई रात कटेगी... कब तक लोगों में बैठूं झूठी मुस्कान लिए कब तक खुद को.. दिलाशा दिलाऊँ.. मेरे तो कहें लोग शब्द नहीं समझते किसे अपने मन की व्यथा सुनाऊँ... शाम तो दोस्तों में बीत जाती है.... तब ऐसा कोई... ख़्याल नही आता... लेकिन रात के अंधेरे में ये दिमाग से भगाने पर भी नही जाता... ✍️शिवम☺️ © Shivam Pandit   #_shivvaam_

पुराने घर

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आज सोशल मीडिया(instagram) इस्तेमाल कर रहा था तभी एक पोस्ट दिखी जिसमें ये तस्वीर थी और पूछा था कि आपके यहाँ इसे क्या कहते हैं? पुराने घरों में ये सामान रखने का सर्वसुलभ स्थान होता था..अब नए घरों में इसकी जगह ड्रेसिंग टेबल और डिज़ाइनर अलमारियों ने ले ली है। इसको हमारे यहाँ आम भाषा में 'आरो' कहते हैं. जिसे अभी नए मकानों में अलमारी बनाई जाती हैं उसी तरीके से इसके लिए जगह छैक(छोड़) देते थे. अब आप बताइए आपके यहाँ इसे क्या कहते हैं? © Shivam Pandit   #_shivvaam_

स्कूल और यादें

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आज शाम जनरल स्टोर पर गये रतलामी सेव लेने, सेव भाजी खाने का मन था आज वहाँ हमे हमारी प्रिय आलू भुजिया रखी दिखी जिन्हें हम अपने स्कूल के समय में जब हम 11वीं और 12वीं में थे तब अधिकतर खाया करते थे. इसे देखकर खाने का मन हुआ और रतलामी सेव के साथ-साथ एक पैकेट इसका भी ले ही लिया. जब 11वीं और 12वीं में थे तब जब भी क्लास से बाहर जाना होता था या ब्रेक होता था तब हम सबसे पहले सलीम अंकल के पास पहले जाते बाकि जगह बाद में और यूँ मान लीजिये की एक पैकेट और लोग 8 जैसे मंदिर में ठाकुर जी का प्रसाद मिलता है उसी तरीके से हम सब आलू भुजिया खाते किसी को मिल गई तो ठीक वरना एक दुसरे से छीन रहें हैं किसी को बाद में खाली पैकेट दे देते थे. लंच के साथ जब तक आलू भुजिया न खाते तब तक हमारा लंच पूरा सा ही नही लगता था. एक व्यक्ति जाता और आलू भुजिया की एक दर्जन वाली पूरी लाइन गले में माला बनाकर ले आता था और फिर होती थी एक पैकेट पाने के लिए जंग-ए-आलू भुजिया. आज ये देखकर स्कूल, कॉरिडोर, फिजिक्स लैब, क्लासरूम, काल्समेट्स, और आलू भुजिया सब याद आ गये और सबसे ज्यादा टीचर जो पढ़ाने के साथ साथ फील करवा देते थे. उनके समझाने के उदा...